Tuesday, February 24, 2009

अनुबंध

मन करता है फ़िर कोई अनुबंध लिखूं ,
गीत गीत हो जाऊँ ऐसा छंद लिखूं ,
सरसों की राग्रून चितवन दृष्टि कर गई सिंदूरी,
योगी को वियोगी कह कर हो गयी बेला अंगूरी,
लिखना ही है तो भुजबंध लिखूं ।
सुख से पंगु अतीत विसर्जित कर दूँ जमुना के जल में ,
आगत से ऐसा भावी सम्बन्ध लिखूं ,
हस्ताक्षर में निर्विकल्प आनंद लिखूं.

Sunday, February 22, 2009

एक और कविता

पूछ रहे मन्दिर गुरूद्वारे आग लगाता कौन यहाँ ?
चंदन वन में विष की बेले आज उगाता कौन यहाँ ?
प्यार बाँटती थी जो धरती बिखरे हैं उस पर कांटे ,
जिनको जोड़ा सदा धर्म ने किसने वो भाई बांटे ?
नाम धर्म का लेकर गोली कहो चलाता कौन यहाँ ?
चंदन वन में विष की बेले आज उगाता कौन यहाँ ?
गुरुद्वारों में गुमसुम हैं गुरु सहमे हैं मन्दिर के राम ,
शैतानों के घर दिवाली मानवता के घर कोहराम,
खूनी हाथों हाय मृत्यु का पर्व मनाता कौन यहाँ?
चंदन वन में विष की बेलें आज उगाता कौन यहाँ ?

Meri Kavita

ये आनंद की प्रेम सभा है यहाँ संभल कर आना जी ,
जो भी आया यहाँ किसी का होकर गया दीवाना जी ।